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धर्मनिरपेक्ष बम : लघुकथा

मन के दरवाजे खोल जो बोलना है बोल
मन के दरवाजे खोल जो बोलना है बोल
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riotशहर में दंगा भड़का है। लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे हैं। पूरा शहर हिंसा की आग में जल रहा है। पिछले दिनों दो गुटों में छोटी सी बात पर उठे विवाद ने विध्वंसक रूप ले लिया। दोनों गुट एक-दूसरे के खून के प्यासे हो चुके हैं। “तूने मेरी घर के तरफ नजर डाली तो तेरी आखें निकाल लूंगा”, “अपने बच्चों को हमारे बच्चों से दूर ही रखना”, एक गली से आवाज आती है। दो पड़ोसी आपस में झगड रहे हैं। ये दोनों कभी अच्छे मित्र हुआ करते किंतु कुछ पलों की धर्मांधता उनके वर्षों की मित्रता पर हावी हो  चुकी थी। अपने पिताओं के इस झगड़े का उनके अबोध बच्चों पर फर्क नहीं पड़ रहा था क्योंकि उनके निश्चल मन अभी दुनिया के मैलेपन से अछूते थे। दोनों बच्चे मस्ती में मग्न होकर पास में ही खेलने लगे। दोनों पड़ोसियों को  अपने बच्चों का यह सद्भाव रास नहीं आ रहा था। कल तक जिन बच्चों के साथ-साथ खेलने पर उनके मन प्रसन्न हो उठते थे, आज उन्हीं बच्चों को साथ खेलता देख उनकी आंखें क्रोध से लाल थीं। दोनों अपने बच्चों को अलग करने के लिए आगे बढ़े लेकिन चंचल बच्चे इधर-उधर भगने लगे। इतने में ही दंगाईयों ने बम फेंका जो उनके बच्चों के पास आकर फटा, दोनों बच्चे बुरी तरह घायल हो गए। दोनों पड़ोसी तलवार को एक तरफ फेंककर बच्चों को उठाने के लिए भागे। बम फेंकने वाले कोई और नहीं, वे तथाकथित कट्टरपंथी लोग थे जिन्होंने इन्हें धर्म के नाम पर पिछले दिनों बरगलाकर छोटी से बात को दंगे का रूप दिया था। अपने बच्चों के खून से सने शरीर देखकर उनकी आंखें भर आई, वे उस क्षण को कोसने लगे जब उन्होंने इन कट्टरपंथी तत्वों के बातों में आकर अपने विवेक को खो दिया था।  धर्मांधता ने उनको जानवर बना दिया था, जिस भाई जैसे पड़ोसी का खून बहने पर वे सबसे पहले मदद के लिए दौड़ते थे, आज वे उन्हीं के खून के प्यासे हो चुकेथे।  खून से लथपथ बच्चों को हाथों में उठाए वे रोते-बिलखते घर आए। वे ग्लानि महसूस कर रहे थे। वे समझ चुके थे कि ऐसे तत्व सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए हिंसा का प्रयोग करते हैं, न ये पहले किसी के शुभचिंतक थे, न रहेंगे। शायद उस बम विस्फोट के बाद धर्मांधता का कोहरा छंट चुका था और धर्मनिरपेक्षता की किरण लौट आई थी।

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