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कोलगेट करो, दातून से डरो (व्यंग्य)

मन के दरवाजे खोल जो बोलना है बोल
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coalचाचा, आज फिर दातून कर रहे हो कभी कोलगेट भी कर लिया करो, दातून करते नत्थू चाचा से जैसे ही मैंने कहा वे अपना दातून थूकते हुए बोले- कर दी ना दिल तोडऩे वाली बात। कोलगेट का नाम सुनते ही लगता है जैसे मेरे किस्मत के सारे गेट बंद हो गए हों। जीवन में सब कुछ किया बस कोलगेट नहीं कर पाया। मैं बोला- चाचा इतनी सी बात, लो अभी दुकान से कोलगेट ले आता हूं। चाचा खिसियाते हुए बोले- अरे आधुनिक युग के पुरातन प्राणी मैं किस कोलगेट की बात कर रहा हूं और तू किस पर अटका है। अरे ये वो कोलगेट नहीं जो पैकेट में समा जाए बल्कि ये वो कोलगेट है जिसमें पूरा देश डूबा पड़ा है। एक कोलगेट दांत चमका रहा है और दूसरा नेताओं की किस्मत।


वैसे कोलगेट न कर पाने के लिए मैं खुद को ही दोषी मानता हूं। मैं सारी उम्र आम के अचार में ही मग्न रहा, कभी भ्रष्टाचार का स्वाद नहीं चख पाया। जिंदगीभर कष्ट सहता रहा पर भ्रष्ट नहीं बन पाया। और अब जिंदगी के आखिरी पड़ाव में खिसियानी बिल्ली बन खंबा नोच रहा हूं और नेता कोयला खोद रहे हैं। नेता कोलगेट कर रहे हैं मैं दातून करता रह गया, वे हीरो बन गए मैं कार्टून बनकर रह गया। गुस्साए चाचा ने अपनी दातून तोड़ी और मुझे समझाते हुए बोले- भ्रष्टाचार न कर मैंने तो खुद अपनी कब्र खोदी है पर बेटा, तुम ऐसा मत करना जब भी मौका मिले तुम भ्रष्टाचार की बड़ी-बड़ी सुरंगें खोदना। वैसे सुरंग खोदने के बहुत फायदे हैं, कभी अंडरग्राउंड होना पड़ा तो ये सुरंग बहुत काम आएंगी।


नत्थू चाचा से मिल रहे ज्ञान को मैं बड़े ध्यान से सुन रहा था। मैंने आगे पूछा- चाचा, कोल ब्लॉक पर आपका क्या कहना है? चाचा बोले- कोल ब्लॉक के तो क्या कहने। इस कोल ब्लॉक ने तो कईयों के किस्मत को अनलॉक कर दिया पर देश की गाड़ी को ब्लॉक कर दिया है। देखो पूरा सत्र निकल गया पर संसद चली ही नहीं। एक जोरदार ठहाका मारते हुए मैं बोला- अरे चाचा, माना संसद का आकार गाड़ी के चक्के की तरह है, पर वो चलती थोड़ी है। खिसियाए चाचा बोले- अरे आधुनिक युग के पुरातन प्राणी मेरा मतलब है संसद चलेगी कैसे, कांग्रेस एक्सीलेटर बढ़ा रही है पर भाजपा ब्रेक दबाए बैठी है, कुछ पार्टियां चक्के पंक्चर करने में भिड़ी है। वहीं मुलायम सिंह कभी स्टेफनी लिए हाथ में दिखते हैं, तो कभी कील। उन्होंने दोनों विकल्प खुले रखे हैं, जरुरत पड़ी तो स्टेफनी बन जाएंगे नहीं तो सरकार की गाड़ी पंक्चर कर देंगे। इस एक्सीलेटर-ब्रेक के घमासान में देखो देश का इंजन जल रहा है।


मैंने आगे पूछा- कांग्रेस बहस चाहती है, भाजपा इस्तीफा। न बहस हो रही है न इस्तीफा मिल रहा है, बस कोल के झटके से पूरा देश हिल रहा है। चाचा बोले- बेटा पत्थर तो दोनों बरसाना चाहते हैं पर अपने कांच के घर देख हाथ खींच लेते हैं। तो कोल ब्लाक के इस बंदरबांट पर आप क्या कहेंगे चाचा, मैंने फिर सवाल दागा। अब तक पूरी तरह रिचार्ज हो चुके चाचा बोले- इसे बंदरबांट कहना जाय•ा नहीं होगा। इंसानों के फसाद में बेचारे बंदरों को इन्वाल्व करना ठीक नहीं, चाचा ने अपने अंग्रेजी ज्ञान का परिचय दिया। मैं बोला- फिर इसे हम अंधा बांटे रेवड़ी कह सकते हैं। चाचा बोले- नहीं नहीं, तुम गलत मुहावरों का प्रयोग कर रहे हो। अंधा तो जो हाथ में आए बांट देता है न कम देखता है न ज्यादा, न अपना देखता है न पराया। यहां जो आबंटन हुआ है वो गिद्घदृष्टि से हुआ है। गिद्घों के द्वारा, गिद्घों के लिए। गिद्घ की तरह कोयला खदानों पर नजर गड़ाए लोगों को आबंटन हुआ है। मैं चाचा को टोकते हुए बोला- आप ही मना कर रहे थे जानवरों को इंसानों के फसाद में इन्वाल्व करने से, और अब खुद ही गिद्घों को इसमें घुसा दिया। चाचा मामला संभालते हुए बोले- मैंने तो इस उम्मीद से नेताओं की गिद्घों से तुलना की कि जिस प्रकार गिद्घ दिनोंदिन लुप्तप्राय हो रहे हैं, तो शायद ये नेता भी….। मगर ये तो असंभव लगता है क्योंकि अब तो बंदरों की मानिंद नेता उछल-उछलकर आ रहे हैं।


पूरे पिक्चर की बात बहुत हो चुकी थी, हीरो तो छूट ही गया था। मैंने तुरंत पूछा चाचा कोयला घोटाले के हीरो मनमोहन सिंह के बारे में कुछ नहीं कहेंगे क्या? मुझे यकीन नहीं होता कि उनके कोयला मंत्रालय संभालते ये सब हो गया। चाचा ठहाका मारते हुए बोले- तू सचमुच एंटीक पीस है। अरे जब टाइम ने मनमोहन सिंह को अंडरअचीवर कहा तभी मैं समझ गया था कि अंदर का माल बाहर आने को है। मैं रोकते हुए बोला- पर अंडरअचीवर तो वो होता है जिसने अपेक्षा से कम हासिल किया हो। चाचा समझाते हुए बोला-तुझे तो अंग्रेजी आती ही नहीं। मैं समझाता हूं, अंडर मतलब होता है अंदर, तो जो अंदर से अचीव करे वो अंडरअचीवर। वैसे भी सब कुछ अंदर ही अंदर हुआ है, प्लानिंग भी, आबंटन भी और कोयले की खुदाई तो अंदर ही अंदर होती है। मेरे हिसाब से तो सभी अंडरअचीवर हैं। और अब जब मामला सामने आया तो लोगों के पैरों तले कोयला म..म..मतलब जमीन खिसक गई। खैर मनमोहन जब बेदाग निकलेंगे तब निकलेंगे, अभी तो कोयले की कालिख में सब पुते हैं।


मैं सोचते हुए बोला- चाचा, अब मैं सब समझ गया। पर जब कोलगेट खुले तब क्या करना चाहिये? चाचा बोले- बेटा जब कोलगेट खुले तो आम आदमी की तरह गेट के इस पार नहीं बल्कि उस पार रहना। दाग लगेंगे, पर आज के जमाने में दाग अच्छे हैं। दागी बनो बैरागी नहीं। दागी बने तो कोलगेट करोगे और बैरागी बने तो मेरी तरह दातून। इसलिए बेटा कोलगेट करो, दातून से डरो। कुछ देर बाद बड़बड़ाते और दातून चबाते हुए चाचा घर चल पड़े… कोयले सी तपती गुस्साई चाची हंगामा जो कर रही थी। और अब मैं बैठा इंतजार कर रहा हूं अगला कोलगेट खुलने का..।

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